Sunday, October 30, 2016

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी 

सामान्य परिचय - 

हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट साहित्यकार, प्रसिध्द आलोचक, निबंधकार एवंं उपन्यासकार  आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म १९ अगस्त १९०७ में उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के छपरा ग्राम में हुआ था । इनका निधन १९ मई १९७९ ई. को हुआ ।

रचनाएँ

1.सूर- साहित्य (आलोचना साहित्य)
2. बाणभट्ट की आत्म कथा ( उपन्यास)
3. पुनर्नवा ( उपन्यास)

भाषा- शैली

भाषा- आचार्य द्विवेदी जी की भाषा उनकी रचना के अनुरूप है। उनकी भाषा के तीन रूप हैं- तत्सम प्रधान, सरल तद्भव प्रधान एवं उर्दू अंग्रेजी शब्द युक्त।
आपने भाषा को प्रवाह पूर्ण एवं व्यवहारिक बनाने के लिए लोकोक्तियों एवं मुहावरों का सटीक प्रयोग किया है। प्रांजलता, भाव प्रवणता,सुबोधता , अलकरिता,सजीवता और चित्रोपमता आपकी भाषा की विशेषता है।
शैली-
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी विविध शैलियों के सर्जक हैं। उनकी शैली चुस्त एवं गठी हुई है। द्विवेदी जी की रचनाओं में  हमें निम्नांकित शैलियाँ दृष्टोगोचर होती है-
1. व्यास शैली- उनके विचारात्मक तथा आलोचनात्मक रचनाओं में व्यास शैली का प्रयोग हुआ है।
2. गवेषणात्मक शैली- हिंदी साहित्य का आदिकाल, नाथ संप्रदाय जैसे शोध सबंधी साहित्य में इस शैली की छटा दृष्टव्य है।
3. विवेचनात्मक शैली- विचार वितर्क  जैसे निबंधों में इस शैली का प्रयोग दिखाई पड़ता है।
4.आलोचनात्मक शैली- साहित्य का धर्म जैसे आलोचनात्मक साहित्य में इस शैली का प्रयोग हुआ है
5. भावात्मक शैली - ललित निबंधों एवं भाव प्रधान निबंधों में इस शैली को देखा जा सकता है।
6. व्यंगात्मक शैली- द्विवेदी जी की रचनाओं में व्यंगात्मक शैली का सुंदर प्रयोग हुआ है।

 साहित्य में स्थान-

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आधुनिक युग के अत्यंत सम्मानित साहित्यकार हैं। ललित निबन्ध सृजन की नूतन परंपरा का सूत्रपात करने का श्रेय आपको दिया जाता है। द्विवेदी जी हिंदी साहित्य के अमर रचनाकार हैं।

Saturday, October 22, 2016

कबीर दास

रचनाएँ

बीजक (साखी, शब्द,रमैनी)

भाव पक्ष-

1. निर्गुण ब्रह्म की उपासना- कबीर भक्ति काल के निर्गुण ज्ञानमार्गी शाखा के कवि हैं। उन्होंने परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का वर्णन अपने काव्य में किया है। उनका राम निर्गुण निराकार है।इसीलिए उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया है। वे कहते हैं-
" पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
   ताते चाकी भली पीस खाए संसार।।
2. प्रेम भावना एवं भक्ति- कबीरदास जी ने ज्ञान को श्रेष्ठ बताया है। उनका ज्ञान निर्गुण ब्रह्म के प्रेम से ओत- प्रोत है। उन्होंने कहा है-
पोथी पढ़- पढ़ जग मुआ भया न पंडित कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़ै सो पंडित होय।।
3. रहस्यवाद- कबीरदास जी का साहित्य रहस्यों से भरा है। उन्होंने जीव और ब्रह्म के संबंधो को अनेकों प्रकार  से वर्णन किया है।
यथा- दुलहिन गावहुँ मंगलचार तोको पीउ मिलेंगे।
4. समाज सुधार एवं नीति परक रचना- कबीर दास के साहित्य में समाज में व्याप्त अंधविश्वास, छुआछूत,वर्ग भेद, जाति- पाँति का खुलकर विरोध किया है। इन्होंने सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए नीति पूर्ण उपदेश भी दिया है। जैसे-
ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणी ऊँच न होइ।
सोवन कलश सुरै भरया, साधू निंद्या सोई।।

कला पक्ष-

भाषा - कबीरदास जी की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा है। इसे सधुक्कड़ी भाषा भी कहा जाता है। आपकी भाषा सीधी, सरल और व्यवहारिक है। आपकी भाषा में अरबी, फ़ारसी, राजस्थानी, अवधी एवं ब्रज भाषा आदि के मिलने से वह खिचड़ी बन गई है।
अलंकार विधान- आपकी रचनाओं में अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। आपके काव्य में रूपक, अनुप्रास, उपमा, अतिशयोक्ति , अन्योक्ति, उत्प्रेक्षा , यमक एवं दृष्टान्त आदि अलंकारो का प्रयोग हुआ है।
छंद योजना-
 आपने मुक्त छंद का प्रयोग किया है। आपकी रचनाओं में दोहा, चौपाई, पद आदि छन्दों का विधान सहज ही दृष्टिगोचर होता है। इसके अतिरिक्त इनकी कुछ रचनाओं में कहरवा छंद का प्रयोग हुआ है।

साहित्य में स्थान-

कबीर सच्चे संत , समाज सुधारक ,उपदेशक एवं युग निर्माता  थे। हिंदी साहित्य के स्वर्णिम काल भक्ति काल के महान कवियों में से एक हैं।