Tuesday, November 15, 2016

रामधारी सिंह ' दिनकर '

रामधारी सिंह 'दिनकर "

रचनाएँ-

1. उर्वशी  ( महाकाव्य ) 
2. प्रणभंग  ( खंडकाव्य )
3. रश्मिरथी ( खंडकाव्य )
4. कुरुक्षेत्र ( खंडकाव्य )
5. रेणुका  ( काव्य-संग्रह ) 

भाव-पक्ष 

1. शोषण के विरुध्द प्रखर स्वर - दिनकर जी की कविता में पूंजीपतियों और शासकों  द्वारा किए जा रहे शोषण के विरुध्द स्वर प्रखर होकर मुखरित हुआ है। इनकी रचनाओं में किसानों एवं मजदूरों के प्रति    सहानुभूति की झलक भी दिखाई पड़ती है । 
2. राष्ट्रीयता एवं देश प्रेम  से ओत-प्रोत रचना - दिनकर जी की कविताएँ राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत है. । 
    जैस-  स्वातंत्र्य जाति  की लगन है , व्यक्ति की धुन है , बाहरी वस्तु यह नहीं, भीतरी गुण है । 
3. ओज एवं उत्साह  प्रधान कविता - इनकी कविता में उत्साह एवं ओज की प्रधानता है । उदाहरण- 
     वैराग्य छोड़कर बांहों की विभा सँभालो , 
     चट्टानों की छाती से दूध निकालो । 

कला पक्ष 

भाषा - 
  दिनकर जी की भाषा तत्सम प्रधान  शुध्द ,साहित्यिक खड़ी बोली है। भाषा भावानुकूल एवं  प्रभावशाली  है । इनकी भाषा व्याकरण सम्मत एवं अलंकारपूर्ण  है । 
शैली -
दिनकर जी ने प्रवन्ध एवं मुक्तक दोनों प्रकार  की काव्य शैलियों का प्रयोग किया है । उनकी शैली  ओज प्रधान है । 
अलंकार - 
 दिनकर जी की कविताओं में अलंकारों का स्वाभाविक एवं सहज प्रयोग हुआ है । मख्य रूप से उपमा, रूपक उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकारों की छटा  उनके काव्य में विद्यमान है। 
छंद -
 दिनकर जी की ने तुकांत एवं अतुकांत दोनों प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है । 

साहित्य में स्थान - 

 दिनकर जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार हैं । वे अपने युग के प्रतिनिधि कवि  हैं । उनकी कविता में महर्षि दयानन्द -सी निडरता भगत सिह जैसा बलिदान, गांधी -सी निष्ठा और कबीर - सी   सुधार भावना एवं स्वच्छन्दता विद्यमान है । 


Monday, November 7, 2016

सूरदास

सूरदास 

जन्म- सन्‌ 1478 ई. ( संवत्‌ 1535 )   
जन्म स्थान- दिल्ली के पास स्थित सीरी ग्राम में , कुछ विद्वान मथुरा के पास स्थित रेनुका (रेणुका) क्षेत्र को उनका जन्म स्थान मानते हैं । 
कर्मस्थली - मथुरा 
स्वर्गवास - सन्‌ 1583 ई. 

रचनाएँ-

1. सूरसागर  ( भगवान कृष्ण की लीलाओं से संबंधित 10000 पद संकलित हैं )
2. सूरसारावली  ( सूरसागर का सार  रूप लगभग 1107 पद संकलित हैं)
3. साहित्य लहरी ( इसमें रस और अलंकार से परिपूर्ण 118  पद हैं )

भाव पक्ष- 

सूरदास प्रेम और सौन्दर्य के अमर  गायक हैं । उनका भावपक्ष अत्यंत सबल है ।  जिसका विवरण  निम्नानुसार है-
1. भक्ति भाव   - सूरदास कृष्ण के  अनन्य भक्त थे । उनकी रचनाओं में भक्ति  भाव की अविरल गंगा बहती है । उनकी भक्ति धारा सख्यभाव की है, किन्तु इसमें विनय, दाम्पत्य और माधुर्य भाव का भी संयोग है ।  
2. वात्सल्य रस का अद्वितीय प्रयोग    - सूरदास वात्सल्य के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं । इनकी रचनाओं में श्रीकृष्ण के बालचरित, शारीरिक श्री ,एवं नन्द और यशोदा के  पुत्र- प्रेम ( वात्सल्य) का अद्भुत सौंदर्य विद्यमान है । 
3.  श्रृंगार रस का चित्रण -  सूरदास ने श्रृंगार रस  का कोना -कोना झांक आए  हैं । उनकी रचनाओं में संयोग  एवं वियोग दोनों रूपों का मार्मिक चित्रण देखा जा सकता है । 

कलापक्ष - 

1. ब्रज भाषा का लालित्यपूर्ण प्रयोग - सूरदास के पदों  की भाषा ब्रज भाषा है । उनके पदों में ब्रज  भाषा का लालित्यपूर्ण , परिष्कृत एवं निखरा  हुआ रूप देखने को मिलता है । माधुर्य की प्रधानता के कारण इनकी भाषा अत्यंत प्रभावोत्पादक हो गई है । 
2.संगीतमय गेय पद शैली - सूरदास का संपूर्ण काव्य संगीत की राग - रागनियों में बँधा पद  शैली का गीत काव्य है ।  व्यंग्य , वचनवक्रता और वाग्वैदग्धता सूर की रचना की विशेषता है । 
3. अलंकारों का सहज प्रयोग - सूर की रचनाओं में अलंकार का  सहज रूप देखने को मिलता है । इनकी रचनाओं में    मुख्यतः उपमा , उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार की छटा देखी  जा सकती है  । आचार्य हजारी  प्रसाद द्विवेदी ने कहा था - अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे दौड़ पडता है , उपमानों  की बाढ़ आ जाती है ,रूपकों की बर्षा होने लगती है । 

साहित्य में स्थान -

सूरदास भक्तिकाल के अष्टछाप कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं ।  वे वात्सल्य और श्रृंगार रस के सिध्द आचार्य हैं। भाव तथा कलापक्ष की जो गरिमा  सूरदास  में है , वह अन्यत्र दुर्लभ है। सूर हिंदी साहित्याकाश के सूर (सूर्य)  हैं । उनके लिए यह कथन सर्वथा उपयुक्त है - 
                                              सूर , सूर तुलसी शशि उडगन केशव दास। 
                                              अब के कवि खद्योत सम, जहैं  - तँह करत प्रकाश ॥ 

 


Saturday, November 5, 2016

जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद 

रचनाएँ -

1. कामायनी  ( महाकाव्य )
2. करुणालय ( गीत नाट्य )
3. कंकाल  ( उपन्यास ) 

भाव पक्ष - 

प्रसाद जी का भाव क्षेत्र व्यापक है । उनके भाव पक्ष को निम्न बिंदुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है -
1. प्रेम एवं सौंदर्य का चित्रण - प्रसाद जी मुख्यतः प्रेम और सौन्दर्य के उपासक हैं । प्रसाद जी द्वारा व्यक्त सौंदर्य में बाह्य और आंतरिक सौंदर्य का अद्भुत सामंजस्य है । कामायनी का यह उदाहरण देखिए - 
घिर रहे थे घुँघराले बल अंस अवलंबित मुख के पास , 
नील घनशावक -से सुकुमार सुधा भरने को विधु के पास । 

2. नारी के प्रति सम्मान का भाव  - प्रसाद जी की रचनाओं में नारी के प्रति श्रध्दा एवं सम्मान के भाव  है ।

3. अनुभूति की गहनता प्रसाद जी के काव्य में अनुभूति की गहनता विद्यमान है । आंसू का यह प्रसंग दृष्टव्य है। 
               "रो -रो कर सिसक-सिसक कर ,
               कहता मैं करुण कहानी ,
               तुम सुमन नोचते सुनते,
               करते जाते अनजानी । "
इसके अतिरिक्त आपकी रचनाओं में कल्पना का अतिरेक , रहस्यवाद , दार्शनिक चिंतन तथा वेदना की अभिव्यक्ति  के स्वर समाहित हैं ।  

कला पक्ष- 

1. भाषा - प्रसाद जी के काव्य की भाषा संस्कृतनिष्ठ, व्याकरण सम्मत , परिष्कृत एवं परिमार्जित खड़ी बोली है । आपने प्रथम काव्य संग्रह 'चित्राधार' की रचना ब्रज भाषा में की है । इसके बाद समस्त काव्य रचना शुध्द ,साहित्यिक खड़ी बोली में किया है । 
2. अलंकार -  प्रसाद जी की रचनाओं में अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया है । आप सहज एवं स्वाभाविक अलंकार योजना के पक्षधर हैं । आपके काव्य में उपमा , रूपक, मानवीकरण , विशेषण विपर्यय आदि अलंकारों का आकर्षक प्रयोग हुआ है । 
3. छंद योजना - प्रसाद जी ने काव्य रचना का प्रारंभ सवैया एवं कवित्त छंदों से किया किन्तु बाद में आपने गीत- शैली एवं अतुकांत छंद में काव्य रचना की । आपने नवीन छंदों का निर्माण भी किया । 

साहित्य में स्थान 

 भाव पक्ष एवं कला पक्ष की दृष्टि से प्रसादजी का काव्य उच्चकोटि का है ।  आपके काव्य में इतिहास , दर्शन एवं कला का मणिकांचन संयोग देखा जा सकता है ।  छायावाद के जनक जयशंकर प्रसादजी  का  हिंदी साहित्य के आधुनिक रचनाकारों में विशिष्ट स्थान है । 

 


Friday, November 4, 2016

कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'

कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' 

रचनाएँ- 

1. जिन्दगी मुस्कराई ( निबंध) 
2. क्षण बोले : कण मुस्कराए  ( रिपोर्ताज)
3. धरती के फूल ( लघु कथा संग्रह ) 

भाषा - शैली 

भाषा- 

प्रभाकर जी की भाषा में अद्भुत प्रवाह एवं स्वाभाविकता विद्यमान है। आपकी भाषा हिंदी- खड़ी बोली है । हिंदी के  साथ-साथ आपने उर्दू , फ़ारसी एवं अँग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग किया है । आपकी भाषा में मुहावरों एवं लोकोक्तियों  का सहज प्रयोग हुआ है ।  वाक्य विन्यास की दृष्टि से भाषा में उन्मुक्त प्रवाह एवं काव्यात्मकता के दर्शन होते हैं । मिश्र जी की रचनाओं में वाक्य प्रायः छोटे एवं सुगठित हैं जिनमें सूक्ति -सी संक्षिप्तता एवं अर्थ- गंभीरता है । 

शैली- 

मिश्र जी की शैली के विविध रूप निम्नांकित हैं - 
1. भावात्मक शैली -  मिश्र जी की अधिकांश रचनाएँ इसी  शैली में लिखी गई हैं । ' मैं और मेरा देश' निबंध में इस शैली के दर्शन किए जा सकते हैं । 
2. विचारात्मक शैली - इनके निबंधों में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है । 
3. रेखाचित्र शैली - आपकी रचनाओं में पाठक के समक्ष कथ्य का एक चित्र सा उभर उठता है । 
आपने अपनी रचनाओं में इन शैलियों के अतिरिक्त वर्णानामक , संवाद एवं व्यंगात्मक आदि शैलियों का प्रयोग किया है ।   

साहित्य में स्थान -

  स्वतंत्र सेनानी, समाजसेवक, गाँधीवादी विचार धारा के पोषक, प्रसिध्द सम्पादक , लेखक , रिपोर्ताज लेखन में  सिध्द हस्त,  उच्चविचारक , आचरण की पवित्रता एवं जीवन की सादगी के  साधक मिश्र जी का हिन्दी साहित्य जगत में विशिष्ट स्थान है । 

सियाराम शरण गुप्त

सियाराम शरण गुप्त 

रचनाएँ - 

1. दूर्वादल ( काव्य)
2. पुण्यपर्व ( नाटक )
3. अंतिम आकाँक्षा ( उपन्यास ) 

भाषा- शैली- 

भाषा - 

आपकी भाषा सरल, सुस्पष्ट और परिष्कृत है । आपने खड़ी  बोली के सहजतम रूप का प्रयोग किया है । भाषा में क्लिष्टता , या बौध्दिकता का भार कहीं  दिखाई नहीं पड़ता। आपकी रचनाओं में उक्तियाँ  एवं मुहावरों का स्वाभाविक प्रयोग होने से  भाषा में सजीवता एवं रोचकता आ गई है । विषय, पात्र एवं अवसर अनुरूप भाषा का प्रयोग आपकी भाषा की महत्वपूर्ण विशेषता है । 

शैली - 

आपकी शैली सरल , परिमार्जित एवं स्वाभाविक है । आपकी शैली के प्रमुख रूप निम्नांकित हैं -   
1. भावात्मक शैली - गुप्त जी  अपनी रचनाओं में हृदय की की अनुभूतियों का प्रभावी अंकन एवं पाठकों में अपनी अमिट  छाप छोड़ने के लिए इस शैली का प्रयोग बाखूबी किया है । 
2. विचारात्मक शैली - आपकी कहानियों में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है । 
3. वर्णनात्मक शैली - 'बैल की बिक्री ' कहानी में मोहन और शिबू आदि के सन्दर्भ में इस शैली का उपयोग किया गया है । 
इसके अतिरिक्त आपने प्रसंगानुसार व्यंगात्मक, सूत्रात्मक शैलियों का भी उपयोग किया है । 

साहित्य में  स्थान -

हिन्दी के विनम्र सेवक और संत साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित सियाराम शरण गुप्त जी का हिंदी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान है। 

प्रेमचन्द

प्रेमचन्द 

रचनाएँ -

1.   पूस की रात ( कहानी ), 
2.  कफ़न ( कहानी )
3. गोदान ( उपन्यास )

भाषा-शैली 

भाषा- 

प्रेमचन्द्र जी ने अपनी रचनाओं के लिए हिन्दी - खड़ी बोली का उपयोग किया है । आपकी भाषा  सरल, सहज,बोधगम्य एवं व्यवहारिक  है । आपने अपनी  रचनाओं में अवसरानुकूल उर्दू शब्दों का भी आकर्षक प्रयोग  किया है । विषय,भाव,एवं पात्रानुरूप भाषा का प्रयोग आपकी भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है। आपकी रचनाओं में मुहावरे तथा लोकोक्तियों की छटा सर्वत्र दिखाई पड़ती है।     

शैली - 

प्रेमचन्द जी की शैली हिन्दी और उर्दू भाषा की मिश्रित शैली है । आपकी  रचनाओं में  अनेक शैलियों का प्रयोग हुआ है । उनमें से कुछ शैलियों का विवरण निम्नांकित है - 
1. विचारात्मक शैली - इस शैली का प्रयोग आपके निबंध 'कुछ विचार' में देखा जा सकता है । 
2. भावात्मक शैली - आपने कहानी एवं उपन्यास के पात्रों की भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए इस शैली का बड़ी चतुराई के साथ उपयोग किया है ।
3. मनोवैज्ञानिक शैली - आपकी अधिकांश रचनाओं में इस शैली का उपयोग हुआ है । आपने अपनी कहानी( बूढ़ी काकी ) एवं उपन्यासों  में  पात्रों के मानसिक द्वन्द्व को इसी शैली के माध्यम से उभारा है ।  
आपने इन शैलियों के अतिरिक्त विश्लेषणात्मक, अभिनयात्मक एवं व्यंगात्मक शैलियों  का भी उपयोग किया है ।    

साहित्य में स्थान -

हिन्दी साहित्य  के  उपन्यास सम्राट , युग प्रवर्तक कहानीकार प्रेमचन्द जी का  नए  कहानीकारों में  विशिष्ट स्थान  हैं । आप आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत में कहानी -कला को अक्षुण्ण बनाए रखने वाले कहानीकारों में  अग्रगणी हैं ।